योद्धाओं के लिए है गीता, जिनके सामने बहुत बड़ा लक्ष्य हो उनके लिए है गीता, जो जीवन में विकट स्थितियों में फंसे हुए हों, जिन्होंने किसी बड़े काम का बीड़ा उठाया हो, जिनमें बड़ी चुनौतियां उठाने का दम हो उनके लिए है गीता_आचार्य प्रशांत
रणक्षेत्र में हम सभी हैं, पैदा हम सब संघर्षों में ही होते हैं। कोई नहीं हो जो धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में नहीं है। पर सब अर्जुन नहीं हैं कुरुक्षेत्र के मैदान पर। जो एक अर्जुन है उसके लिए गीता है,बाकियों के लिए कुछ नहीं है_आचार्य प्रशांत
गीता कोई पुस्तक नहीं कि आप उठा कर उसको पढ़ लेंगे। गीता एक उपलब्धि है जो बड़े श्रम के बाद मिलती है। सबको मिल ही नहीं सकती। पुस्तक तो सब कोई उठा सकता है, उपलब्धियां क्या सबको होती है? गीता को पढ़ा नहीं जाता, गीता को पाया जाता है_आचार्य प्रशांत
दुनिया उल्टी है- बाहर बल नहीं, भीतर प्रेम नहीं। अर्जुन अति विरल हैं- बाहर अति बलिष्ठ, भीतर सुकोमल_आचार्य प्रशांत
डरा हुआ आदमी अधार्मिक, अनैतिक ही नहीं अतिहिंसक हो जाता है_आचार्य प्रशांत
जाने बिना ही टूट पड़ना ये पाश्विक अहंकार का काम है। आम व्यक्ति पशु के समान ही जीता है, बस टूट पड़ता है। मनुष्य आप तब होते हैं जब आप टूट पड़ने से पहले जानने का प्रयास करो_आचार्य प्रशांत
स्वेच्छा उन्हीं के लिए शुभ शब्द है जो कृष्णमय हो गए हों, अन्यथा स्वेच्छा अतिघातक है_आचार्य प्रशांत
हम एक है, वृत्ति के तल पर। हम अनेक है , मन के तल पर। हम कुछ नहीं है , आत्मा के तल पर_आचार्य प्रशांत
वास्तव में सरल व्यक्ति के लिए जटिलता कहीं होती ही नहीं है। जटिलता सिर्फ़ जटिल मन के लिये होती है_आचार्य प्रशांत
अर्जुन कुरुक्षेत्र में कौरवों और पांडवों के बीच में नहीं खड़े हैं बल्कि वास्तव में अर्जुन मनुष्य की पाश्विकता और कृष्ण के बीच खड़े हैं_आचार्य प्रशांत
सही काम में जो पीड़ा मिले उसे प्रेम का उपहार मानकर सीने से नहीं लगा सकते, उसे देवता का प्रसाद मान कर माथे से नहीं लगा सकते तो उसे दवाई का कड़वा घूँट ही मानकर बस सह लो_आचार्य प्रशांत
कौरव कौन? जो वृत्ति के बहाव में बह गया_आचार्य प्रशांत
सब अनित्य है और उसकी सार्थकता ही इसीमें है कि वो नित्य की खातिर मिट जाए_आचार्य प्रशांत
गीता का सारा प्रवचन- अहम को ही संबोधित किया गया है। और अहम से कहा जा रहा है तुम वो करो जो तुम्हें आत्मा की ओर ले जाएगा_आचार्य प्रशांत
जो अहम को आत्मा की ओर ले जाए वही धर्म है_आचार्य प्रशांत
अर्जुनों के लिए गीता है। उन्हें असत में सत दिखता है और सत असत जैसा दिखता है। अर्जुनों को समझाना पड़ता है कि "तुम कौन हो और तुम्हारे लिए क्या सही है? तुम वो हो जो कष्ट में है, ऐसा कुछ मत कर देना अर्जुन जो तुम्हारे कष्ट को और बढ़ा दें। तुमसे मैं बात इसलिए नहीं कर रहा कि आत्मा तुम्हारी सच्चाई है। तुमसे मैं बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि अहंकार तुम्हारा वर्तमान तथ्य है_आचार्य प्रशांत
जो व्यक्ति सच्चाई को सबसे ऊपर रखता है, वो किसी पर उपकार नहीं कर रहा है। वो कुछ ऐसा कर रहा है जिससे उसका स्वयं का व्यक्तिगत कल्याण ही होगा। और ये व्यक्तिगत कल्याण इतना विशेष होगा कि पारमार्थिक हो जाएगा_आचार्य प्रशांत
सही रास्ते पर, जैसे भी अनुभव होते हों, उन अनुभवों में अव्यथित, अकंप रहना ही आनंद है_आचार्य प्रशांत
अध्यात्म आपको बस ये समझाने के लिए है कि जो चाहिए(शांति), उसको सीधे-सीधे क्यों नहीं मांग लेते? जिधर को जाना है (आत्मा), उसकी ओर का सीधा रास्ता ही क्यों नहीं पकड़ लेते?_आचार्य प्रशांत
आत्मा की बात करना आवश्यक क्यों है? इसलिए क्योंकि अहम यदि प्रकृति में ही फंसा रह जाता है तो जीवनभर दुःख पाता है। इसलिए आत्मा आवश्यक है। आत्मा सत्य हो न हो पर आवश्यक बहुत है_आचार्य प्रशांत
कृष्ण के विरुद्ध खड़े होना मतलब सत्य के, आत्मा के विरुद्ध खड़े होना, धर्म और न्याय के विरुद्ध खड़े होना,जीवन सिर्फ उसका है जो कृष्णमय हो गया, जो कृष्ण के विरुद्ध है वो तो जीवन के ही विरुद्ध है_आचार्य प्रशांत
धर्म का उद्देश्य मात्र है- आत्मा। धर्म का उद्देश्य मात्र है- अहंकार से मुक्ति। अहंकार जब चलते-चलते आत्मा तक पहुँचता है तो मिट जाता है। तो इसीलिए धर्म को कहते हैं- धर्म माने मुक्ति_आचार्य प्रशांत
कृष्ण महाभारत में जीने का तरीका सिखा रहे हैं। कुछ है तुम्हारे जीवन में जो आत्मस्थ होने से रोकता है तो उसे त्याग दो_आचार्य प्रशांत
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः। भागवत गीता में जिन श्लोकों का सबसे ज़्यादा दुरुपयोग हुआ है ये उनमें से एक श्लोक है। शस्त्र, अग्नि, जल, वायु ये प्रकृति में पाए जाते हैं इससे सिद्धांत क्या बना? कि आत्मा प्रकृति से परे हैं। इस श्लोक का मात्र इतना अर्थ है_Acharya Prashant
जीवन ही विधि है। बेहोश हो तो जीवन ही बंधन है, होश में हो तो जीवन साधन है_Acharya Prashant
कुछ भी जो जीवन में ऊँचा है वो सहज नही मिल जाता उसके लिए संघर्ष करना पड़ता है और उस संघर्ष में ही सहजता है_Acharya Prashant
आत्मा क्या है- विशुद्ध मै पूर्णमय। अहम वृत्ति क्या है- सिर्फ मै जो सबमे साझी है। व्यक्तिगत अहंकार क्या है- देह मै शरीर हू शरीर ही सब है_Acharya Prashant
न प्रेम सहजता से हो जाएगा, न बोध सहजता से हो जाएगा। वास्तविक प्रेम में भी बहुत संघर्ष लगता है, अपने ही ख़िलाफ़ लड़ना पड़ता है। बोध में भी बहुत संघर्ष लगता है। कुछ भी जो जीवन में ऊँचा है वो सहज नहीं हो जाएगा। वो संघर्ष माँगेगा। उसी संघर्ष में असली सहजता है_Acharya Prashant
जो अज्ञानी हैं उनके लिए कर्तव्य ही ठीक हैं; जो ज्ञानी हैं उनके लिए कर्तव्यों से मुक्ति होती है_Acharya Prashant
हम छोटी छोटी चीजों से लगाव तो कर लेते हैं लेकिन बड़ी चीज़ से प्यार नहीं कर पाते, हम डर जाते हैं_Acharya Prashant
गीता ज्ञान की चीज़ नहीं है, गीता जीवन की चीज़ है। या तो वो जीवन में उतरेगी, नहीं तो वो फिर ज्ञान की तरह मन में भी नहीं बैठेगी। श्रीमद्भागवत गीता आपको पूरी तरह वशीभूत कर लेंगी। या तो पूरा कब्ज़ा होगा उनका या तो अपमान मान कर पूरी ही वापिस चली जाएंगी। आप ये नहीं कर सकते कि जिंदगी मेरी तो पहले की तरह ही साधारण औसत मध्यमवर्गीय ज़िन्दगी चलती ही रहेगी और साथ ही साथ मैं गीता भी रख लूँगा मन में। ये दो साथ-साथ नहीं चल सकते। या तो गीता को आप पूरा अधिकार, पूरा नियंत्रण दीजिए। नहीं तो वो पलट के वापस चली जाएगी_Acharya Prashant
मन तुम्हारा माँग रहा है कृष्ण रस और दुनिया तुम्हें दिखा रही है मधुरस_Acharya Prashant
आत्मा की ओर बढ़ने में प्रयत्न नहीं आवश्यक होता समझ आवश्यक होती है। समझ के बाद जो श्रम होना होता है वो स्वयं होता है। श्रम का बहुत महत्व है लेकिन बोध के बिना श्रम का कोई महत्व नहीं है। वास्तविक बात है- बोध_Acharya Prashant
यही गीता की आधारभूत सीख है- सही काम चुनो। घटिया और व्यर्थ का काम चुनकर के उसमें संतुष्ट होने की आशा रखना बड़ी मूर्खता है। और अगर सही काम चुन लिया तो फिर उसमें कितनी भी विपदाएँ आयें, कितने भी कष्ट झेलने पड़े, जादू हो जाता है मन तब भी संतुष्ट रहता है। गलत काम में तुम्हें सुख भी मिल गया, सफलता भी मिल गयी तो भी संतुष्टि नहीं पाओगे। और सही काम में, कृष्ण कर्म में, निष्काम कर्म में सौ बार हारोगे तो भी पाओगे भीतर से तृप्त हो आनंदित हो_Acharya Prashant
मन यदि ये कल्पना कर पा रहा है कि आप इस स्थिति से अलग भी किसी स्थिति में हो सकते थे जिसमें आपको सुख मिलता तब भीतर से वर्तमान स्थिति के प्रति विरोध उठता है, उसी को दुःख कहते हैं। जो निर्विकल्प हो जाता है वो इस कष्ट से बच जाता है_Acharya Prashant
वेदों का जो काम्य खंड है वो कामनापूर्ति के मार्ग लेता है और वेदों का जो ज्ञान खंड है वो मुक्ति का मार्ग लेता है। वो कहता है- दुःख से अगर पूर्ण निवृत्ति चाहिए तो तुम्हें दुःख सुख यानि अहंकार से ही पूर्ण मुक्ति चाहिए। वो रास्ता उपनिषदों का है, वेदांत का है_Acharya Prashant
जहाँ आप निर्विकल्प हो जाते हो वहाँ मन को कष्ट होना बंद हो जाता है। इस बात को थोड़ा समझियेगा, बात ज़रा सूक्ष्म है। किसी भी स्थिति में यदि आपको मानसिक पीड़ा हो रही होती है तो उसका कारण मानसिक द्वंद होता है_Acharya Prashant
जो भी तुम्हें खींच रहा है सच्चाई से दूर, कृष्ण से दूर उसमें कोई दम नहीं हो सकता। वो कितनी भी मिठास दिखा रहा हो, वो बहुत कड़वा होगा_Acharya Prashant
ज्ञान का उद्देश्य आपको सुख देना नहीं होता, ज्ञान का उद्देश्य आपको सुख-दुःख दोनों से मुक्त करना होता है_Acharya Prashant
स्थूल अनुशासन को कहते हैं दमन सूक्ष्म अनुशासन को कहते हैं शमन इन्द्रियाँ भाग रही हों किसी ओर को उनको रोक देना है - दमन। मन भाग रहा है किसी दिशा में उसको रोक देना कहलाता है- शमन। लेकिन दमन शमन ज्ञान से पहले नहीं आते_Acharya Prashant
साधारण धर्म का लक्ष्य होता है- कामनापूर्ति और वेदांत का लक्ष्य है- मुक्ति। साधारण धर्म का लक्ष्य है- सुख और वेदांत का लक्ष्य है- मोक्ष_Acharya Prashant
न सुख की आस, न दुःख का डर जो सही है वो चुपचाप कर!_Acharya Prashant
एक ही अधर्म है- मन को कामनाओं पर चलने देना। तो ऐसे धर्म को तुम अधर्म ही जानो जो मात्र तुम्हारी कामनापूर्ति का साधनभर हो_Acharya Prashant
जब दर्पण हो पर कोई प्रतिबिम्ब ही न दिखाई देने लगे, जब सब अनुभव समाप्त हो जाये, यहा तक की अगर सामने कृष्ण भी आ जाये तो भी सपना समझना, क्योंकि परमात्मा तो भीतर से देख रहा है , तो दृश्य कैसे बनेगा। दृश्य जब तक रहेंगे तब तक सपना जानो_आचार्य प्रशांत
आत्मज्ञान का अर्थ है कि आप जान गए कि जो मन को चाहिए वो पाने से नहीं गँवाने से मिलता है_आचार्य प्रशांत
"प्रकृति माँ है, पत्नी नहीं; नमन करो, भोग नहीं"_आचार्य प्रशांत
कर्म तो तुम्हें करना ही पड़ेगा, कर्म से कौन बच सका है। जिस क्षण तक तुम सांस ले रहे हो, कर्म तो तुम प्रतिपल कर रहे हो, कोई बच नहीं सका है कर्म से, बस तुम ये देख लो कि तुम्हारा कर्म आ कहां से रहा है? भीतर के बेहोश अंधेपन से या तुम्हारी निष्कामता से। उसी निष्कामता को आत्मा भी कह सकते हैं क्योंकि मन हमेशा कामुक होता है, आत्मा को कुछ नहीं चाहिए क्योंकि वो पूर्ण है_आचार्य प्रशांत
निष्काम कर्म है एक जगे हुए आदमी का जीवन। वो जो कुछ भी करता है उसमें निष्कामता होती है। कामना अंधी है, क्योंकि कामना तुम्हारी है ही नहीं_आचार्य प्रशांत
कृष्ण के कर्मयोग का संदेश- वो मत करो जो तुम्हारा मन तुम्हें करने की तरफ फेंक रहा है। तुम्हारी अंधी वृत्तियाँ तुम्हें बेहोशी में नचा देना चाहती हैं, तुम नाच नहीं जाना। तुम जानो अपने आपको, वो जानना ही आत्मा है, बोध ही आत्मा है। और जब जानोगे तो उस जानने से एक नया, साफ, सशक्त कर्म उठेगा उसको निष्काम कर्म कहते हैं। तुम वो काम करो जो तुम्हारे बोध से फलित होता है। लेकिन तुम्हारे बोध से फलित काम तुम तब कर पाओगे न जब पहले तुमको दिखाई दे कि जो काम तुम पहले से कर रहे हो वो बेहोशी से आ रहा है, संस्कार से आ रहा है, अज्ञान से आ रहा है। इसी को तो बोध कहते हैं। बोध माने जानना। जानगया कि अभी तक मैं जिस राह चल रहा था, वो राह मेरी है ही नहीं। जानगया कि मैं एकदम बेहोश हूँ और जीवन पथ पर लड़खड़ाता, ठोकरे खाता पता नहीं किस दिशा को बढ़ा जा रहा हूँ_आचार्य प्रशांत
जिसे कुछ पाने का लालच नहीं, उसे कुछ खोने का डर नहीं होता_आचार्य प्रशांत
मनुष्य अकेला है जो पैदा नही होता निर्मित होता है। जानवर सब पैदा होते हैं मनुष्य का निर्माण होता है_आचार्य प्रशांत
आत्मज्ञान के प्रकाश में अंधे कर्म सब त्याग दो। निराश हो, निर्मम रहो, तापरहित बस युद्ध हो।। जीवन युद्ध है, आराम की जगह नहीं। रणभूमि में कूद जाओ और लड़ो_आचार्य प्रशांत
शरीर, समाज, संयोग ये हैं असली मालिक, ये है असली शोषक, ये तीन पूरी जिंदगी पूरे हस्ती लिए जा रहे हैं_आचार्य प्रशांत
न तो तुम्हें किसी व्यक्ति के प्रति आस्था रखनी है, न तुम्हें किसी किताब की अंधभक्ति करनी है और न तुम्हें कोई कर्म कांड में घुसे रहना है। ये वेदान्त है- पूर्ण मुक्ति! नहीं तो धर्म ही बंधन है फिर_आचार्य प्रशांत
अहंकार मान्यताओं में जीता है, मान्यताओं को धर्म थोड़े ही बोलते हैं। धर्म आता है - जिज्ञासा से।_आचार्य प्रशांत
धर्म वो जो सबको प्रकृति से परे एक आत्मा में स्थापित कर दे क्योंकि प्रकृति में केवल विभाजन ही पाए जाते हैं यानी सगुण से निर्गुण में स्थापित जो एक सबका है और हम भी उस जैसे हो सकते हैं_आचार्य प्रशांत
धर्म को गौरव वेदांत देता है। वेदांत नहीं है तो धर्म सिर्फ कहानी, मान्यता और अंधविश्वास है_आचार्य प्रशांत
मुक्ति है इन तीन मालिकों से त्याग पत्र देना- शरीर, समाज, संयोग_आचार्य प्रशांत
जब नकली पूरी तरह हटता है तो असली अपने आप उदित हो जाता है_आचार्य प्रशांत
जो भी व्यक्ति देह भाव नहीं बोध भाव में जीता है वो कृष्ण है। बोधोहम् ! शिवोहम्! सोहम्!_आचार्य प्रशांत
ईश्वर और प्रकृति एक ही है, और वेदांत में दोनों माया है...प्रकृति के नियामक को ईश्वर कह दिया है_आचार्य प्रशांत
जिस तल के तुम होते हो.. उसी तल के तुम्हारे चुनाव भी होते हैं... और उसी तल का फिर तुम्हारा जीवन बन जाता है_आचार्य प्रशांत
ज्ञानी वो हैं जो जानता हैं की कर्म के पीछे (कर्ता) नहीं हैं, कर्म के पीछे (गुण) हैं। ये ज्ञान की परिभाषा हैं_आचार्य प्रशांत
अपने आपको 'विशेष' समझना ही दुःख है। जिसने जान लिया जैसी उड़ती धूल है, वैसा इंसान का अस्तित्व है। जैसे पेड़ उग गया कहीं, पौधा उग गया कहीं। जैसे सर के ऊपर वृक्ष है और पांव के नीचे घांस है। जैसे पत्थरों पर पानी बह रहा हो... बस यही हैं -हम। जिसने ये जान लिया वो मुक्त है_आचार्य प्रशांत
जो जीते जी 'मैं' बोलना बन्द कर देता है, उसकी एक मौत होती है और वो जीवित हो जाता है_आचार्य प्रशांत
जीवन उत्सव है, बस धार्मिक मन के लिए_आचार्य प्रशांत
अधार्मिक चित्त दुनिया की तरफ़ देखता है मुंह खोल के और धार्मिक चित्त दुनिया की तरफ़ देखता है आँखे खोल के_आचार्य प्रशांत
समाज धर्म है- जो कुछ चला आ रहा है, न कोई अपनी सोच होनी चाहिए, न अपनी कोई मौलिक चेतना होनी चाहिए, तुम कुछ हो ही नहीं, तुम्हारी कुछ निजी दृष्टि है ही नहीं, तुम्हें देखने सोचने समझने का अधिकार ही नहीं है ये समाज धर्म है। समाज धर्म कहता है कोई भी चीज़ ठीक इसलिए है क्योंकि वो हमेशा ठीक मानी गयी। ऐसे समाज धर्म पर नहीं चलना है_आचार्य प्रशांत
भीड़ में सुरक्षा का भरोसा आ जाता है भाई, कहीं इकट्ठा हो गए हो- पाँच सौ, हजार या पचास हज़ार लोग, वो सब प्रफुल्लित हो जाते हैं। उनको लगता है देखो सब हमारे जैसे ही तो हैं, लगता है हम बच गए, जो होगा हम सबके साथ होगा न। मैं अकेला नहीं मरूँगा। भीड़ में आपको उस खोखली सुरक्षा की भावना ज़रूर मिल जाती हो, लेकिन जो चीज़ सबसे कीमती है वो पीछे हो जाती है- आपकी निजता। भीड़ में कोई निजता होती है? भीड़ का चयन करने का मतलब ही है अपनी निजता का सौदा कर लेना_आचार्य प्रशांत